कहौं
हरि कहा ? कौन मुहँ लाय |
तुम
सों पाय पतित पावन प्रभु, चरन शरन नहिं आय |
पढ्यो
सुन्यो सब वेद पुरानन, गुन्यो नाहिं इठलाय |
...
नित रह लक्ष्य लोकरंजन को, बातन विविध बनाय |
औरन
की झूठी निंदा करि, चाहत रसिक कहाय |
अबहूँ
नाथ ! ‘कृपालु’ न चेतत, नर तनु बीत्यो जाय ||
भावार्थ-
हे श्यामसुन्दर ! तुमसे कौन सा मुँह लेकर, क्या कहूँ ? तुम सरीखा पतितपावन स्वामी पाकर
भी तुम्हारी शरण में नहीं आ सका | वेदों, शास्त्रों एवं पुराणों को भली-भाँति पढ़ा और
सुना भी, किन्तु अहंकारवश नहीं माना | प्रतिक्षण अनेक प्रकार की रंग-बिरंगी बातों के
द्वारा संसार को ही प्रसन्न करने का लक्ष्य रखा | वास्तविक संतों की भी झूठी निन्दा
करके अपने आपको संत कहलवाने का प्रयत्न किया | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं यह अमूल्य
मनुष्य शरीर समाप्त होता जा रहा है, फिर भी चेतना नहीं आ रही है |
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